Class 10 Chapter 3 Science Notes आनुवंशिकी (Genetics)

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Chapter 3 आनुवंशिकी (Genetics)

Science Notes

आनुवंशिकी (Genetics) जीव विज्ञान की वह शाखा है, जिसके आनुवंशिकता (Heredity) तथा जीवों की विभिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है। जेनेटिक्स (Genetics) शब्द का प्रयोग सबसे पहले बेटसन (Bateson 1905) ने किया। इस शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द जीन (Gene) से हुई है।

आनुवंशिकता के अध्ययन में ग्रेगर मेण्डल की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है।

लैंगिक जनन के दौरान युग्मकों द्वारा जिन लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी मे संचरित किया जाता है, उन लक्षणों को आनुवंशिक लक्षण, कहते हैं। आनुवंशिकी लक्षणों का जनक पीढ़ी से संतति पीढ़ी में संचारित होने को वंशागति (Heredity) कहते है । हेरिडिटी (Heredity) शब्द का प्रतिपादन स्पेन्सर (Spencer, 1863) ने किया था।

लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न एक ही जाति के सभी सदस्य समान नहीं होते हैं, उनमें विभिन्नताएँ पायी जाती है। इन विभिन्नताओं का प्रमुख कारण जीन विनिमय की घटना है जो अर्द्धसूत्री विभाजन के दौरान घटित होती है।

प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। इन कोशिकाओं में कुछ गुणसूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति डी.एन.ए. की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती है जिन्हें जीन कहते हैं। ये जीन गुणसूत्रों के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए जिम्मेदार के होते हैं।


1. मेण्डल की सफलता के कारण (Reasons for Mendel's Success )

दूरदर्शिता के कारण ही मेण्डल को अपने प्रयोगों में सफलता मिली। उनकी सफलता'क निम्न कारण थे

1. मेण्डल ने एक समय में केवल एक ही लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया।

2. मेण्डल ने अपने प्रयोगों का दूसरी (F2) तथा तीसरी (F3) तथा इससे आगे की पीढ़ियों तक अध्ययन किया।

3. मेण्डल ने अपने प्रयोगों में इकट्ठे किए गये आँकड़ों का पूरा गणितीय रिकार्ड रखा और उनका सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया। 

4. उन्होंने केवल ऐसे पौधों का चुनाव किया जो आनुवंशिक रुप में शुद्ध (Pure breed) थे। इसकी पुष्टि उन्होंने अगली पीढ़ियों के पौधों से स्वः परागण परीक्षणों द्वारा की ।

5. उन्होंने शुद्ध लक्षणों वाले पौधों को अलग उगाया जिससे इनमें किसी अन्य लक्षण का पर-परागण द्वारा मिश्रण न हो सके। 

6. स्व- परागण की संभावना को समाप्त करने के लिए कुछ लम्बे और कुछ छोटे पौधे के पुंकेसर काट दिये गये।


2. मटर के पादप का चयन (Selection of Pea Plant) 

मेण्डल ने अपने प्रयोगों के लिए उद्यान मटर को चुना। इस पौधे को चुने जाने के निम्न कारण थे

(i) मटर एकवर्षीय पौधा है और इसको आसानी से बगीचों उगाया जा सकता है।

(ii) मटर की अनेक प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिसमें विभिन्न लक्षणों के वैकल्पिक रूप देखने को मिलते हैं। उदाहरण के लिए लम्बे व बौने पौधे, लाल पुष्प व सफेद पुष्प वाले पौधे, गोल व झुर्रीदार वीज वाले पौधे इत्यादि ।

(iii) मटर के पुष्पों में प्राकृतिक रूप से केवल स्व-परागण होता है। इसके पुष्पों का कुछ भाग ऐसा होता है कि उसके नर एवं मादा जननांग एक नाव जैसी आकृति में बन्द होते हैं। पर-परागण न होने के कारण प्रयोगों के दौरान किसी प्रकार की अवांछित जटिलता नहीं आ पाती है।

(iv) नर एवं मादा जननांग एक ही पुष्प में होते है अर्थात् वे उभयलिंगी (Hermaphrodite) होते हैं।

(v) स्वपरागण के कारण मटर के पौधे समयुग्मजी (Homozy- gous) होते हैं। अतः पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसके पौधे शुद्ध लक्षण वाले बने रहते हैं।

(vi) मटर के पुष्पों में कृत्रिम पर-परागण (Artificial Cross-polli nation) सफलतापूर्वक कराया जा सकता है। (vii) मटर के पौधे एक पीढ़ी में अनेक बीज उत्पन्न करते हैं जिससे निष्कर्ष निकालने में आसानी होती है। 

(viii) मटर के पादपों में विभिन्न विपर्यासी लक्षणों के युग्म पाये जाते हैं।

3. आनुवांशिकी शब्दावली (Genetics Terminology)

मेण्डल के कार्यों तथा उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए वंशागति के नियमों को समझने के लिए निम्नलिखित तकनीकी शब्दों को समझाना अत्यावश्यक है

1. जीन (Gene) - सभी जीवों में आनुवंशिक लक्षणों का नियंत्रण एवं संचरण आनुवंशिक इकाइयों द्वारा होता है। मेण्डल ने इन इकाइयों को कारक कहा था जिसे बाद में जोहनसन ने जीन कहा। 

2. युग्मविकल्पी (Allelomorph or allele)- किसी एक लक्षण को नियंत्रित करने वाले जीन के दो विपर्यासी स्वरूपों को युग्मविकल्पी कहते हैं।

3. समयुग्मजी (Homozygous)-जब किसी लक्षण को नियंत्रित करने वाले जीन के दोनों युग्मविकल्पी एक समान हो तो उसे समयुग्मजी कहते हैं जैसे-TT या tt

4. विषमयुग्मजी (Hetrozygous) - जब किसी लक्षण को नियंत्रित करने वाले जीन के दोनों युग्मविकल्पी असमान हो, उसे विषमयुग्मजी कहते हैं जैसे-Tt

5. लक्षण प्रारूप (Phenotype) - किसी सजीव की बाह्य आकारिकी संरचना (External appearance) को लक्षण प्रारुप कहते हैं। जैसे-लम्बा एवं बौना पौधा ।

6. जीन प्रारूप (Genotype) - किसी सजीव की आनुवंशिकीय रचना (Genetic constitution) को जीन प्रारुप कहते हैं। जैसे-शुद्ध या समयुग्मजी लम्बा (TT) व अशुद्ध या विषमयुग्मजी लम्बा Tt. 

7. प्रभावी लक्षण (Dominant Characters) - वह लक्षण जो F पीढ़ी में विषमयुग्मजी अवस्था में अपने आपको अभिव्यक्त कर पाता है, प्रभावी लक्षण कहलाता है।

8. अप्रभावी लक्षण (Recessive Characters) - वह लक्षण जो F, पीढ़ी में विषमयुग्मजी अवस्था में स्वयं को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, अप्रभावी लक्षण कहलाता है।

9. एक संकर संकरण (Monohybrid Cross) वह संकरण जिसमें एक लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया जाता है, उसे एक संकर संकरण कहते हैं।

10. द्विसंकर संकरण (Dihybrid Cross ) - वह संकरण जिसमें दो लक्षणों की वंशागति का अध्ययन किया जाता है, उसे द्विसंकर संकरण कहते हैं।

11. त्रिसंकर संकरण (Trihybrid Cross) - वह संकरण जिसमें तीन लक्षणों की वंशागति का अध्ययन किया जाता है, उसे त्रिसंकर संकरण कहते हैं।

12. बहुसंकर संकरण (Polyhybrid Cross) - वह संकरण जिसमें नम कई लक्षणों की वंशागति का अध्ययन किया जाता है, उसे बहुसंकर संकरण कहते हैं।

14. संकरपूर्वज या पश्च संकरण (Back Cross)- वह संकरण जिसमें F1 पीढ़ी का संकरण दोनों जनकों में से किसी एक के साथ किया जाता है, संकर पूर्वज संकरण कहलाता है।

15. व्युत्क्रम संकरण (Reciprocal Cross) - वह संकरण जिसमें 'A' पादप (TT) को नर व 'B' पादप (tt) को मादा जनक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है तथा दूसरे संकर में 'A' पादप (TT) को मादा व 'B' (tt) पादप को नर जनक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, उसे व्युत्क्रम संकरण कहते हैं।

16. जनक पीढ़ी (Parental Generation)-संतति प्राप्त करने के लिए जिन पौधों का संकरण करवाया जाता है, उन्हें जनक पीढ़ी कहते हैं।

17. F, पीढ़ी (First Filial Generation)-जनको के संकरण से प्राप्त प्रथम पीढ़ी को F पीढ़ी कहते हैं। -F, पीढ़ी के संकरण

18. F2 पीढ़ी (Second Filial Generation)से प्राप्त संतति को F2 पीढ़ी कहते हैं।

19. एक संकर अनुपात (Monohybrid Ratio) - एक संकर संकरण से प्राप्त संतति अनुपात को एकसंकर अनुपात कहते हैं।

20. द्विसंकर अनुपात (Dihybrid Ratio)- द्विसंकर संकरण से प्राप्त संतति अनुपात को द्विसंकर अनुपात कहते हैं।


4.|मेण्डल के वंशागति के नियम (Medel's Laws of Inheritance)

मेण्डल ने उद्यान मटर (Pisum sativum) पर संकरण प्रयोगों के द्वारा कुछ महत्वपूर्ण नियमों का प्रतिपादन किया, जिन्हें मेण्डल के वंशागति या आनुवंशिकता के नियम कहते हैं। ये नियम निम्नलिखित हैं


1. प्रभाविता का नियम (Law of dominance)

एक संकर संकरण के प्रयोग में जब एक ही लक्षण के दो विरोधी गुणों वाले पौधों के बीच संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी (F) में वही गुण प्रदर्शित होता है जो प्रभावी होता है। इसको प्रभाविता का नियम कहते हैं। इस क्रिया में जो गुण या कारक प्रकट होता है या जो दूसरे गुण को प्रदर्शित नहीं होने देता, उसे प्रभावी गुण या कारक कहते हैं। जबकि वह गुण जो प्रकट नहीं होता, उसे अप्रभावी गुण या कारक कहते हैं।

उदाहरण-मेण्डल ने नियम की पुष्टि हेतु जब मटर के समयुग्मजी लम्बे (TT) पौधे तथा समयुग्मजी बौने (tt) पौधों के बीच संकरण कराया जाता है तो संकरण के फलस्वरुप प्रथम पीढ़ी (F1) में जो पौधे प्राप्त हुए वे सभी विषमयुग्मजी लम्बे (Tt) थे। जो प्रभाविता के नियम की पुष्टि करता है। प्रभावी विशेषता समयुग्मजी (TT) और विषमयुग्मजी (Tt) दोनों परिस्थितियों में प्रकट होती है। जबकि अप्रभावी विशेषता केवल समयुग्मजी (tt) अवस्था में ही प्रकट होती है।




चित्र 3.3: प्रभाविता के नियम का निरूपण


2. पृथक्करण का नियम या युग्मकों की शुद्धता का नियम (Law of Segregation or Law of Purity of Gametes)

मेण्डल के नियम के अनुसार प्रत्येक जीन जोड़ी (युग्म विकल्पी) के कारक (जीन) युग्मकों के निर्माण के समय एक-दूसरे से पृथक होकर अलग-अलग युग्मकों में चले जाते हैं, इसी कारण इसे पृथक्करण का नियम या विसंयोजन का नियम कहते हैं। युग्मनज (Zygote) निर्माण में ये कारक पुनः एक-दूसरे के साथ आ जाते हैं तथा अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं। इस प्रकार जीन या कारक द्वारा अपना अस्तित्व या जीन की शुद्धता बनाए रखने के कारण इस नियम को युग्मकों की शुद्धता का नियम कहते हैं।

उदाहरण-मेण्डल के प्रभावित के नियम में प्रथम पीढ़ी (F1) में प्राप्त संकर लंबे पौधों में जय स्वनिषेचन (Self Pollination) की क्रिया को होने दिया जाता है तो द्वितीय पीढ़ी (F2) में युग्मकों का पृथक्करण हो जाता है तथा F2 पीढ़ी में भिन्न लक्षणों वाले पौधे प्राप्त होते हैं।

यदि हम लक्षणप्रारूप के अनुसार देखें तो तीन पौधे लम्बे जबकि एक पौधा बौना प्राप्त होता है अर्थात् 75% पौधे लम्बे एवं 25% पौधे बौने मिलते हैं। जिनका अनुपात 3 : 1 है।

यदि हम जीनप्रारूप के अनुसार देखें तो एक पौधा शुद्ध लम्बा, दो पौधे संकर लम्बे तथा एक पौधा शुद्ध यौना प्राप्त होता है अर्थात् 25% पौधे शुद्ध लम्बे, 50% पौधे संकर लंबे एवं 25% पौधे शुद्ध बौने मिलते हैं जिनका अनुपात 1: 2: 1 है।



लक्षण प्ररुप अनुपात- 3 लम्बे          :          1 बौना 

जीन प्ररुप अनुपात- 1 समयुग्मजी   :  2 विषमयुग्मजी    :  1 समयुग्मजी

                                     लम्बा              लम्बे

                                    1(TT)     :       2 (Tt)


(i) संकरपूर्वज संकरण (Back Cross)

यदि F1 पीढ़ी (Tt) के पौधे का संकरण दोनों जनकों TT या tt में से किसी एक के साथ किया जाता है तो इसे संकरपूर्वज संकरण (Back cross) कहते हैं।

1. बाह्य संकरण (Out cross) - इसमें F1 पीढ़ी के पादप (Tt) का संकरण अपने प्रभावी जनक (TT) से करवाया जाता है। इस संकरण से प्राप्त संतति में सभी पौधे लम्बे प्राप्त होते हैं जिनमें से 50% समयुग्मजी लम्बे (TT) तथा 50% विषमयुग्मजी लम्बे (Tt) पौधे प्राप्त होते हैं।


                                            चित्र 3.5: बाह्य संकरण का निरुपण

लक्षण प्रारूप अनुपात- 100% पौधे लम्बे

जीन प्रारूप अनुपात-     1      :      1

                            50% TT   :   50% Tt

                        (समयुग्मजी) (विषमयुग्मजी)


2. परीक्षण संकरण (Test cross)- यदि एक संकर संतति का शुद्ध अप्रभावी जनक से संकरण होता है तो प्राप्त संततियों में प्रभावी और अप्रभावी दोनों लक्षण प्रारुप 1 1 के अनुपात में होते हैं। इस संकरण को परीक्षण संकरण (Test cross) कहते हैं। इस संकरण को परीक्षण संकरण इसलिए कहा जाता है क्योंकि द्वारा संकर संतान की विषमयुग्मजता (Hetrozygosity) स्थापित हो जाती है या इससे प्रभावी लक्षण प्रारुप के विषय में ज्ञात होता है कि वह समयुग्मजी है या विषमयुग्मजी।


                                   चित्र 3.6 : परीक्षण संकरण का निरूपण

लक्षण प्रारुप अनुपात-     50% लम्बे          :         50% बौने

जीन प्रारूप अनुपात- 50% विषमयुग्मजी   :    50% समयुग्मजी

                                        लम्बे (Tt)                 बौने (tt)


3. स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम (Law of Independent As sortment )

स्वतन्त्र अपव्यूहन के नियमानुसार जब दो या दो से अधिक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले पादपों के बीच संकरण कराया जाता है तो प्रत्येक लक्षण की वंशागति एक दूसरे को प्रभावित किये बिना स्वतन्त्र रूप से होती है। मेण्डल के नियम के अनुसार यह केवल द्विसंकर तथा बहुसंकर संकरण पर आधारित हैं। इसमें जब पीले व गोल आकार के बीज (RRYY) वाले मटर के पौधों तथा हरे व झुर्रीदार आकार के बीज (rryy) वाले मटर पौधों के बीच संकरण कराया जाता है तो प्रथम पीढ़ी (F1) में सभी पौधे पीले व गोल बीज (RrYy) वाले पौधे प्राप्त हुए जिससे यह सिद्ध होता है कि पीला व गोल आकार प्रभावी लक्षण है। परन्तु जब द्वितीय पीढ़ी (F2) में स्वनिषेचन होता है तो जीनों का पृथक्करण होता है तथा पुनः जीनों के संयुग्मन से मुख्यतया चार प्रकार के पौधे प्राप्त होते है निम्नलिखित हैं

1. पीले तथा गोलाकार बीजों वाले पौधे

2. हरे तथा गोलाकार बीजों वाले पौधे 

3. पीले तथा झुर्रीदार बीजों वाले पौधे 

4. हरे तथा झुर्रीदार बीजों वाले पौधे

उपर्युक्त पौधों के बीच 9 : 3 : 3 : 1 का अनुपात प्राप्त होता है।



लक्षणप्रारूप चार प्रकार के अनुपात 9:3:3: 1 में प्राप्त होते है तथा जीन प्रारूप नौ प्रकार के अनुपात 1: 2:2:4:1:2:1.2: 1 मे प्राप्त होते हैं।

लक्षणप्रारूप अनुपात (Phenotypic ratio)

         9            :             3     :           3       :     1 

पीला गोलाकार:हरा गोलाकार:पीला झुर्रीदार:हरा झुर्रीदार

जीनप्रारूप अनुपात (Genotypic ratio)


1               :       2        :       2         :      4        :      1    :      2      :      1         :     2            :      1

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5. मेण्डल के वंशागति के नियमों का महत्व (Importance of Mendel's Law of Inheritance)

1. मेण्डल के वंशागति नियमों से मानव में लक्षणों की वंशागति के बारे में पता चलता है कि हानिकारक व घातक जीन अप्रभावी होते हैं। ये समयुग्मजी अवस्था में ही प्रकट होते हैं।

2. माता-पिता के वे वंशानुगत लक्षण जो विषमयुग्मजी संतान में दिखाई देते हैं प्रभावी लक्षण कहलाते है तथा माता-पिता से आये वे वंशानुगत लक्षण जो विषमयुग्मजी संतान में दिखाई नहीं देते हैं, अप्रभावी लक्षण कहलाते हैं।

3. मेण्डल के पृथक्करण के नियम की प्रस्तुति से जीन संकल्पना (Gene-concept) की पुष्टि होती है। 

4. पृथक्करण के नियमानुसार एक जीन के दो युग्मविकल्पी होते हैं जो विपर्यासी लक्षणों को नियंत्रित करते हैं।

5. संकरण विधि से अनुपयोगी लक्षणों को हटाया जा सकता है तथा उपयोगी लक्षणों को एक साथ एक ही जाति में लाया जा सकता है।

6. मेंडल के नियमों का उपयोग कर उन्नत किस्मों के पादप विकसित किये जा सकते हैं जैसे रोग प्रतिरोधी पादप व अधिक उत्पादन वाली फसलों का विकास किया जा सकता है

7. सुजननिकी मानव जाति के सुधार से सम्बन्धित विज्ञान की एक शाखा है। यह मेण्डल के नियमों पर आधारित है।


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